रविवार, अक्तूबर 15, 2006

आस्था की अकाल मृत्यु

आस्था की अकाल मृत्यु
शहरों के सड़कों की हालत और यातायात भला किसे नहीं विचलित करता है। ऐसा शायद ही कोई हो जो सड़क पर निकले और यातायात व्यवस्था केा नहीं कोसता हो। खासकर जब ऑफिस जाने का समय हो और आप अपनी स्कूटर या मोटर साईकिल को रिक्सा के पीछे-पीछे रूक-रूक कर चलाने के लिए विवश हों। 'अरे भाई ! देख कर नहीं चल सकते क्या ? कितना लाइन बनाइयेगा ? अजब हाल है ! लगता है सड़क जैसे इनके बाप की हो......। वहाँ देख्एि ट्रैफिक कान्सटेबल किनारे खड़े खैनी चुना रहा है, सा...ला....! इस देश का कोई माई-बाप नही है क्या ? साले हराम का पैसा खाते हैं। अबे साले हट !` पटना की सड़कों के भीर-भार के बीच आपकेा ये शब्दावली सहज ही सुनने को मिल जाएँगे। सड़क की भीड़-भाड़ में पाँव रखने तक की जगह नहीं उसपर से भँति-भाँति की सवारी, बोरे से लदी बैलगारियाँं, रिक्सा, बांस से लदा ठेला, टमटम, टेम्पो और इन सब के बीच आम लोगों को ललचाती रंग बिरंगी कीमती कारेां की पें...पें..., पेां...पों..., टें...टें..। दुरुस्त सड़कों का कहीं नामो निशाँ नहीं। यहाँ के सड़कों पर ये नजाड़े आम हैं। ऐसी ही एक भीड़ भरी सुबह रमेशबाबू भी पसीने से तर-बतर, चिड़चिड़ाये हुए से अपने कार्यालय पहँुचे। घर से बैंक पहुँचने में करीब एक घंटे, पैंतालिस मिनट तो लग ही जाते हैं। देर हो रही थी। कितना भी सबेरे तैयारी सुरू करे, पर घर का काम, नास्ता-पानी करते, समय कैसे निकल जाता है पता ही नहीं चलता। भाग दैार मची ही रहती है। रमेशबाबू की एक आँख घड़ी पर टीकी थी और मन ही मन वे बैंक की नौकरी केा कोसते हुए ऑफिस में प्रवेश किए। बैंक मैनेजर के चैम्बर के एक कोने में रखे फाइल कैबिनेट के उपर अपना हैलमेट रखते हुए अपने टेबल पर जाकर बैठ गए। पसीना पोछते हुए सोच रहा थे, चाहे जो कर लो पर बैंक की नौकरी नहीं करेा। बैंक की ऑफीसरी से तो किरानीगिरी अच्छा है। कम से कम व्यक्ति समय पर घर तो वपस जा सकता है। उनकी जिम्मेदारियाँ भी कम होती हैं। यहाँ तो जैसे नौकरी नहीं की, गुलामी कर ली। एक मिनट की भी फुर्सत नहीं। घर में भी रोज किच-किच। लेकिन कर ेक्या? बैंक की जिम्मेदारियों के सामने परिवार की जिम्मेदारियाँ तो गौण हो ही जाती हैं। एक ओर रमेश के मन मेे इसी प्रकार की चिन्तन प्रक्रिया चल रहीं थी और दूसरी ओर वे यंत्र चालित से रुटीन फाईल भी निबटा रहे थे। इतने में अचानक एक बृद्ध व्यक्ति सोर मचाता हुआ रमेशबाबू के कमड़े में प्रवेश किया । उस व्यक्ति की आयु लगभग साठ-बासठ की होगी। कमड़े में घुसते ही वह व्यक्ति जोड़-जोड़ से बोलने लगा - 'मैंने पैसा नहीं लिया है सर ! मेरा यकीन किजिए, मैं ने कोई लोन नहीं लिया है। ये लोग बे वजह मुझे फँसाना चाहते हैं। यह चिट्ठी फ्राड है सर...! इतना पैसा तो मैंने जिन्दगी में कभी देखा ही नहीं ! ` बनारसी जोर-जोर से रमेश के कमड़े में आकर चिल्ला रहा था। रमेशबाबू चिढ़ गए, 'चुप....! चुप रहिए आप । बक-बक किए जा रहे हैं। मुझे बात समझने दीजिए।` बनारसी रुकनेवाला नहीं था। उसने फिर कहना सुरू किया, 'यह देखिए सर....! जड़ा देखिए तो सही....? कितना फ्रॅाड मचा रखा है, आपके बैंक ने।` रमेशबाबू ने देखा उस व्यक्ति का चेहरा तमतमाया हुआ था। तनाव के कारण उसके शरीर की नसें उभर आयीं थीं। उसके कपाल पर चिंता की मोटी रेखाएं खिंची थी। अपने स्वभाव के अनुसार रमेशबाबू ने शान्त भाव से कहा, 'कैसी बे सिर पैर की बातें कर रहे हैं आप ? कैसा फ्रॅाड, किस फ्रॅाड की बात कर रहे हैं आप ? उस बृद्ध ने कहा, 'देखिए सर.....! यह कागज देखिएसब कुछ समझ में आ जाएगा। मैं एक महीने से आप के ऑफिस का चक्कर लगा रहा हूँ, लेकिन यहाँ तो कोई सुनने वाला ही नहीं है।` रमेशबाबू ने कागज अपने हाथ में लेते हुए कहा, 'पहले बैठ जाईए, इतने गुस्स्ेा मेें क्येंा हैं आप, क्या है इस कागज में, बोलिए?` वह व्यक्ति थोड़ा शान्त हुआ, फिर बोलने लगा- 'चिल्लाएं नहीं तो क्या करें सर...? आज महीने भर से परेशान हूँ। आपके ऑफिस का चक्कर लगा रहा हूँ, लेकिन ये लोग कुछ सुनते ही नहीं।` तबतक कक्ष में बैंक के अन्य कर्मचारी भी प्रवेश कर चुके थे । बनारसी को देखते ही बोलने लगे, 'सर ! अजीब आदमी है यह महीने भर से चक्कर लगा-लगा कर सर खा गया है।` बृद्ध फिर भरक उठा, 'मैं अजीब आदमी हूँ। शरम नहीं आती है कहते हुए? मैं जानता हूँ आप सभी मिलकर मुझे लूटना चाहते हैं, और उल्टा मैं ही अजीब हो गया। मैं ऐसा अन्याय नहीं होने दूँगा। क्या समझ लिया है आप लोगेां ने, यहाँ कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज है कि नहीं ?` रमेशबाबू ने अपने कर्मचारियों को शान्त रहने का निर्देश देते हुए कहा, आपलोग शांत रहिए। इनकी बात मुझे सुनने तो दीजिए। आखिर कोई व्यक्ति इतना परेशान होकर क्यों रोज-रोज बैंक का चक्कर लगाएगा। उसकी परेशानी भी समझनी चाहिए।` रमेशबाबू फिर उस व्यक्ति की ओर मुखातिव होकर बोले, 'आप खुद बोलिए, क्या हुआ है ? बृद्ध रमेश की बातें सुनकर कुछ शांत हुआ। बोला, 'सर, मेरा नाम बनारसी है। आप के बैंक से मुझे इनलोगों ने चिट्ठी भेजी है। कहते हैं मंैने लोन लिया है। और बार-बार तगादे कि चिट्ठी भेज रहे हैं। सर...! लेकिन आज तक मैंने किसी भी बैंक से कोई लोन लिया ही नहीं। मैं झूठ नहीं बोलता सर...! ये लोग केस करने की धमकी भी दे रहे हैं, ताकि दबाव बनाकर मुझसे कुछ पैसे ऐंठ सकें। ऐसी घांधली तो मैंने कभी देखी ही नहीं। मैं ने भी तीस बरस पुलिस की नौकरी की है सर...! सब दाँव -पेंच जानता हूँ। डिप्टी साहब मुझे इतना मानते थे कि मैं क्या कहूँ।` एक साँस में ही बनारसी सब बोल गया। रमेश उसे शान्त करने के लिए उसकी बातों में रूचि दिखलाई, बोले, 'कौन डिप्टी साहब ? बनारसी बोलने लगा, 'अरे साहब, वे ऑफिसर नहीं भगवान हैं । बड़ा नेक साहब है सर! मैं उन्हीं के अन्दर में पिछले पाँच छ: वर्षों से ड्यूटी पर था। जेल के डिप्टी सुपरिन्टेन्डेन्ट हैं सर ! आप नहीं जानते उन्हें ? उनका नाम हैं आर.सी. सिंह। बनारसी को लगा कि वह साहब के नाम के साथ न्याय नहीं कर रहा है। भारत की सांस्कृतिक विरासत को अपने में समेटने वाला एक से एक नाम पिता अपने पुत्र के लिए चनते हैं। उनकी कामना रहती है कि नाम के प्रभाव से उनके संतान के व्यक्तित्व में निखार आएगा। किन्तु वे ही नाम अंग्रेजी के प्रभाव में आकर अपनी अहमियत गंवा बैठते हंै। अंग्रेजी वर्णमाला के प्रथम अक्षरों में संक्षिप्त हो चले नाम मनुष्य के व्यक्तित्व को ही कुण्ठित कर देता है। तेज बहादुर सिंह हो जाते हैं 'टीबी` सिंह, प्रेम कुमार हो गए 'पीके`, बुद्धि नाथ हो गए 'बीएन`, उमापति हो जाते हैं 'युपी`। अत: बनारसी ने फिर कहा, सर उनका पूरा नाम 'रामचन्द्र सिंह है। क्या बताउँ साहब जैसा नाम वैसा ही इन्सान हैं सर ! कोई भी काम लेकर जाओ तुरत निबटारा । कोई कागज आजतक रोक कर रखा ही नहीं सर ! कहीं से यदि कोई आमदनी भी हुआ तो हमलोगों को भी चाय पान करा ही देते थे। मैं सिनियर कान्सटेबल था। उन्हीं के ड्युटी में रहता था।` फिर रुक कर बोला, 'खैर छोड़िये सर ! मैं ने भी दुनिया देखी है, पर इस तरह का अन्याय नहीं देखा। ऐसी जाली चिट्ठी ये लोग भेज देते हैं, खाली पैसा ठगने के लिए। पर वह सब यहाँ नहीं चलेगा। मैं यदि डिप्टी साहब को कह दूँ तो इन सब की नौकरी चली जाय। डिप्टी साहब का बहुत लम्बा हाथ है सर ! ये लोग महीने भर से मुझे परेशान कर रहे हैं। इसीलिए आज खास कर आप से मिलने आया हूँ। एक सज्जन ने मुझे आपका नाम बताया था। बोले बहुत ईमानदार और मदत करने वाले ऑफीसर हैं। मैं आप से मिलने आ गया सर...! मुझे इस चक्रब्यूह से छुटकारा दिलाईए। मैं बच्चों की कसम खाकर कहता हूँ मैं ने कोई लोन नहीं लिया है सर...! जरा इस कागज को पढ़ लीजिए और अपने हाथों से फार कर फेक दीजिए। जब मैं ने कोई कर्ज लिया ही नहीं तो फिर तगादा कैसा ? रमेश ने उस व्यक्ति के हाथ से चिट्ठी ले ली । गौर से देखकर कहा, लेकिन यह तो असली चिट्ठी है बनारसी जी। यह बैंक का रिकाभरी लेटर है। बैंक किसी से ठगी नहीं करता। आप से ही भूल हो रही है बनारसी , आप ने जरूर कभी लोन लिया होगा। वही सूद के साथ बढ़कर इतना हो गया है।` कनारसी अर गया। बोला, सर मैंने कईबार आप से कहा है कि मैंने कोई कर्ज नहीं लिया है। कर्ज भला कोई भूलता है। रमेश बाबू ने शांत किन्तु गम्भीर स्वर में कहा, 'आप याद कीजिए। देखिए भलाई इसी में हैं कि बैंक का पैसा चुका दीजिए। जहाँ तक हम लोगेां से बन परेगा, आपको सुविधा कर दूँगा।` रिटायर्ड कान्सटेबल बनारसी सिंह उबल परे, 'यह कैसी बात आप करते हैं, भला मैं क्यों पैसे चुकाउँ। मंैने कर्ज लिया ही नहीं तो चुकाना क्यों परेगा। कोई देा चार हजार की बात तो है नहीं जो लेकर भूल जाउँगा। फिर रुक कर बोला, एक बात बता दूँ सर ! कर्जा लिया हुआ कोई कभी नही भूलता। मैं सच कहता हूँ सर ! जीवन में मैंने आजतक कभी भी एकसाथ इतना पैसा देखा ही नहीं । भूलना तो दूर।` रमेश बाबू का धैर्य अब जबाब दे रहा था, गम्भीर शब्दों में किसी से उन्होंने कहा, 'इनका फाईल ले आइये।` बनारसी से मुखातिव होते हुए बोले, 'बनारसी जी मैं अभी आपकेा फाइल दिखाता हँू। बैंक ऐसी गलती कर ही नहीं सकती। यदि आप लोन नहीं लिए होते तो तकादे की चिट्ठी जाती ही नहीं।`` पर बनारसी मानने को तैयार ही नहीं था बोला, 'हाँ दिखलाइये सर ! अभी दूध का दूध और पानी का पानी हो जाय।` अब बनारसी कान्सटेबल का क्रोध धीरे-धीरे चिन्ता में तब्दील होती जा रही थी। उसके चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ साफ दिख रही थी। सोच रहा था, 'मैनेजर साहब भी कह रहे हैं चिट्ठी असली है।` बनारसी रमेशबाबू को हाथ जोड़कर कहने लगा, 'जरा ठीक से चेक कर लीजिएगा सर ! मैं बर्बाद हो जाउँगा। गरीब आदमी हूँ सर...!` रमेशबाबू के टेबल पर फाईल आ चुका था। उन्होंनेे देखा लोन अप्लिकेसन पर बनारसी सिंह के नाम का दस्तखत है। रमेशबाबू बनारसी को एक सादा कागज देते हुए बोले, 'जरा इस पर दस्तखत कीजिए! बनारसी ने काँपते हाथों से दस्तखत किया। रमेश ने छूटते ही कहा बिल्कुल सही। एकदम वही दस्तखत है। फिर खीझ कर बोले, 'देखिए आप लोग बिना मतलब बैंक मे आकर हल्ला मचाते रहते हैं। कर्ज लेने समय समझते नहीं और बाद में जब तकादा जाता है तो जमीन आसमान एक करने लगते हैं। चुपचाप आकर पैसा दे जाइये वर्णा कोई डिप्टी साहब बचाने नहीं आएँगे। सीधा जेल होगा। जहाँ नौकरी की है वहीं आराम कीजिएगा।` बनारसी फफक परा, रोते हुए उसने कहा, 'मेरा विश्वास कीजिए सर ! मैंने कोई लोन नहीं लिया है। किसी तरह पेंसन से खाना पीना जुटता है। दया कीजिए सर।` रमेशबाबू परेशान होते हुए बोले, 'कर्ज नहीं लिय तो फिर ये दस्तखत कहाँ से आ गया। देखिए इसे खुद गौर से देखिए आपका ही दस्तखत है कि नही ?` हाँ सर ! यह दस्तखत तो मेरा ही है। हम झूठ नही बोलेंगे सर ! पर मैंने लोन नहीं लिया सर...! रमेश के कक्ष में अबतक मजमा सा लग गया था। अन्य बैंक कर्मी भी तमाशबीन बन गए थे। कोई भी अपना कामेन्ट देने से नहीं चूक रहा था। एक ने कहा, 'बेकार आप इसे कमड़े में बिठाकर तरजीह दे रहे थे सर ! महीने भर से हम लोगों का माथा खा रहा है।` दूसरे ने कहा, 'पागल है सर! ` तीसरे ने कहा, 'जाओ, जाकर सूद समेत पैसे का इन्तजाम करके आओ।` किसी ने कहा, 'फ्रॅाड है सर ! असली फ्राड है ।` बनारसी रमेशबाबू के टेबल पर सिर गरा कर बिलखने लगा। रमेशबाबू को बनारसी की बातोंे में सच्चाई दिख रही थी। हृदय की गहड़ाइयों से लिकलने वाले सच्चे श्वरों में एक विशेष प्रकार की अनुगंूज और खनक होती है जो सीधे सुनने वाले की आत्मा में प्रवेश कर जाती है। रमेश बाबू की आत्मा ने बानारसी के श्ब्दों में सच की उस अंर्तध्वनि को पहचान लिया। उन्हों ने कमड़े में जमे लोगों से खीझ कर कहा, 'चुप रहिए आप लोग। जो जी में आता है बकते जा रहे हैं। बनारसी झूठ नहीं बोल रहा है। यह सुनकर सब आवाक हो गए। सबका सर चक्कर खा गया । यह क्या कह रहे हैं मैनेजर साहब ? सभी रमेशबाबू को जिज्ञासा की दृष्टि से देखने लगे। रमेश ने आगे कहा, 'बात समझने की कोशिश कीजिए। कोई इन्सान यों ही अपने बच्चेां की कसम नहीं खा सकता। मुझे तो लगता है बनारसी झूठा नहीं है, पर इसके साथ फ्राड अवश्य हुआ है।` रमेश की बात सुनकर कमरे में जमे सभी लोग हतप्रभ हो गए। सबके चेहरे पर प्रश्न का भाव झलक रहा था, 'क्या कह रहे हैं आप सर ? रमेशबाबू ने भाव से कहा, 'अभी पता चल जायगा।फिर उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर बनारसी से कहा, 'बनारसी जी आप सच कह रहे हैं ? आप ने पैसा नहीं लिया है? रमेश की बातेां से बनारसी को ढ़ाढ़स बंधी थी। वह विगलित स्वर से कहा, 'भगवान साक्षी सर ! मैं ने एक पैसा कर्ज नहीं लिया।` रमेशबाबू ने सहानुभूति पूर्वक कहा, 'तो फिर आप के साथ घोखा हुआ है। किसी ने आप के साथ घोखा किया है। बनारसी आस्वस्थ होते हुए बोला वही तो मैं कह रहा हूँ सर ! रमेशबाबू ने बैंक में उपल्ब्ध कर्ज के विभिन्न प्रपत्रों को बारी-बारी से बनारसी के सामने रखा। बोले, 'आप घबराइये नहीं। गौर से इस कागज को देखिए और शान्त भाव से याद किजिए, 'आपने ऐसे किसी कागज पर कभी हस्ताक्षर किया था, या नहीं?` बनारसी के चेहरे पर बेचैनी थी। रमेश ने फिर कहा 'शांत मन से दिमाग पर जोड़ डालिए। याद कीजिए।` एक प्रपत्र को देखकर बनारसी की आंखों में चमक दौर गई। कुछ याद कर बोला, 'एक बार डिप्टी साहब ने ऐसा ही एक कागज पर दशखत के लिए कहा था। पर वह तो पेंशन का कागज था।` रमेश ने कहा, 'देखिए गौर से ऐसा ही कागज था ?`` बनारसी के मन में संदेह उत्पन्न हो रहा। उसने मन को समझाते हुए कहा, 'था तो सर कुछ-कुछ ऐसा ही पर......न.., न: ऐसा नहीं हो सकता सर..! वो ऐसा नहीं कर सकते। उन्हों ने तेा कहा था यह पेंशन का कागज है, साइन करदो, रिटायरमेन्ट के समय सहूलियत होगी। पर आप नाहक शक कर रहे हैं। डिप्टी साहब...., भला वे क्यों ऐसा करने लगे। रमेशबाबू का शक सही लिकला। उन्होंने अपने सिर पर हाथ रख लिया। चिन्तित होकर बोले, शक नही बनारसी ! मुझे तो लगता है तुम्हारे डिप्टी साहब ने ही तुम्हें चूना लगाया है। उन्हों ने धोखा से कर्ज के कागज पर तुमसे दस्तखत करवा लिया।` बनारसी के पांव के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई। हतप्रभ होकर कहने लगा, 'पर उन्होंने ऐसा क्यों किया होगा। किस बात की कमी थी उनको।` सभी कर्मचारियों को अबतक माजरा समझ में आने लगा था। बनारसी के प्रति जो रोश था वह संवेदना में तब्दील हो चुका था। एक कर्मचारी ने कहा, पैसा....बनारसी भाई, पैसा...। दूसरे ने कहा, 'इसीलिए तो हम बैंक वाले पैसे के मामले में अपने आप पर भी विश्वास नहीं करते।` कुछ कर्मचारी आपस में फुस फुसा कर बात कर रहे थे, 'देखो, कल तक उसी डिप्टी साहब के बल पर हम सबों को धमका रहा था बेचारा...। भगवान समझता था उसे, उसी ने धोखा दे दिया। बनारसी कटे वृक्ष की भाँति कुर्सी पर निढ़ाल हो गया। उसके चेहरे पर घोर हताशा के भाव धिर आए थे। उसकी आँखें निश्तेज हो गयी थीं। वह भाव शून्य सा सब की ओर देख रहा था। रमेशबाबू बनारसी की बूढ़ी आँखों में उसकी मनोदशा को पढ़ पा रहे थे। आज बनारसी के भगवान ने ही उसे घोखा दे दिया था। सब लोग स्तब्ध थे। अभी-अभी उनलोगेां के बीच एकहत्या हुई थी । आज फिर एक इन्सान के आस्था का खून हुआ था। अभी-अभी आस्था और विश्वास की अकाल मुत्यु देखी थी उनलोगों ने। आस्था का गला घोंटा गया था किन्तु वहाँ खून का एक बूँद भी नहीं था, थी अश्रु की अजश्र धारा। बनारसी के आंखों से अश्रु की अविरल धारा बह रही थी। बनारसी कुछ देर पूर्व भी वहीं पर चिंता और वेदना से रोया था। किन्तु उस रुदन में कातरता थी। उस अश्रु में लावण्य था। अब भी बनारसी के आंखों से आंसू बह रहे थे। किन्तु इसमें विश्वासघात की वेदना थी और थी आक्रोश की ज्वाला। इन आंसुओं में वह पहले जैसा लावण्य नहीं था। अब उन आँसुओं में था तेजाब का जलन ।

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कलानाथ मिश्र एम०ए०,एम०बी०ए० । पी-एच०डी० । डिप्लोमा, (कम्प्युटर एप्लिकेशन) कई वर्षों तक पाटलिपुत्र दैनिक समाचार पत्र में कार्य । अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविता,कहानी,समीक्षात्मक निबंध प्रकाशित तथा आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से प्रसारित। विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से सम्बद्ध । सम्प्रति स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग,ए० एन० कॉलेज, पटना,मगध वि०वि० में विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत। संपादक: सहित्य यात्रा, ISSN No. 2349-1906 visiting faculty, deptt. of Business Management(MBA) A.N.College.