सोमवार, अक्तूबर 30, 2006

दो कमड़े का मन

दो कमड़े का मन

सुलेखा कमड़े में टीवी ऑन कर रखी थी, पर घ्यान उसका कहीं और था। टीवी जैसे कमड़े के पार्श्व संगीत के लिए ही चलाया गया हो। वह गुननाते हुए कभी घड़ी की ओर देखती तो कभी डे्रसिंग टेबल के पास स्वयं को क्षण भर निहार लेती थी। उसके चेहरे पर चपलता और आत्म विश्वास के मिश्रित भाव थे। उसे विश्वास हो गया था कि अब सुदीप में सुधार हो रहा है। वह अब पहले की तरह नहीं बहकता है। अब सुदीप को अपने और अपने परिवार की जिम्मेवारियों का एहसास होने लग गया है। परिवार से सुलेखा का तात्पर्य आधुनिक आदर्श परिवार से है, यानी कि पति-पत्नी और बच्चे, बसकृ। इसमें उसकी भी कोई गलती नहीं जो उसने अपने पैत्रिक परिवार में देखा था उसे ही वह आदर्श मान बैठी थी। सुलेखा उसासें लेती हुई मन ही मन सोचने लगी, 'उफ..कितना समझाना पड़ा है सुदीप को, अब जाके कहीं उसे अपने परिवार और अपने बच्चों के खुशियों की चिंत हुई है। सारा दिन परोपकार में डूबा रहता था।`वास्तव में अत्यन्त सलीका से धीरे-धीरे सुलेखा, सुदीप को अपनेमनोनकूल ढाँचे में ढ़ाल पायी है। शायद यही कारण है कि आज सुलेखा के चेहरे पर संतुष्टि का भाव स्पष्ट दिखता है। सुदीप का काम भी अच्छा चल रहा है। आधुनिक युग के हिसाब से पैसा अच्छा कमा लेता है। सुलेखा पति के कमाई में से जैसे -तैेसे विभिन्न बहाने कर, अनेक प्रकार के नाटक रच, झगड़ा, और मान-मनौवल कर जैसे भी हुआ अपने दोनो बच्चों के नाम अच्छी-खासी रकम जमा कर रखी है। उसकी अब एक ही चाहत है कि सुदीप बाँकी पारिवारिक झमेलों में न पड़े। बस अपना, अपने नीजी परिवार का सेाचे। सुलेखा पढ़ी लिखी आधुनिक लड़की है। जीवन में उसकी प्राथमिकताएँ भी पृथक हैं। समाज परिवार के सम्बन्ध में उसकी अपनी नपी तुली परिभाषाष् है। वह उसी परिभाषा के दायरे में अपना जीवन सुदीप और बच्चों के साथ जीना चाहती है। इसमें खलल उसे कतई पसन्द नहीं है। ऐसा नहीं कि वह अन्य लोगों के प्रति बिल्कुल उदासीन है। किन्तु उनके प्रति सुलेखा का व्यवहार बिल्कुल औपचारिक और बनावटी ही रहता है। सुदीप मानसिक, पारिवारिक शान्ति चाहता है। वह संबंध के इस सीमा पर पर्दा पड़े रहने देना चाहता है। परन्तु इस बनावटी शान्ति की चाहत की कीमत उसे अपने विचारों को संकुचित कर चुकाना पर रहा है। सुलेखा के विचाारों से समझौता करते-करते अब स्वयं भी उसीके सिद्धांतों के अनुरूप ढ़ल चुका है। किन्तु व्यक्ति का मौैलिक स्वभाव क्या इतनी आसानी से पीछा छोड़ देता है? सुदीप का लालन-पालन जिस परिवार में हुआ है वह मघ्यवर्ग का शालीन परिवार है। जहाँ सब एक दूसरे का खयाल करते हैं। एक दूसरे की जरूरतों को जानते समझते हैं और जरूरत पड़ने पर अपनी आवश्यकताओं को भूलकर दूसरे की जरूरी आवश्यकताओं को पूरा करने की भरसक चेष्टा करते हैं। मितव्ययिता के साथ अभाव और आवश्यकता के बीच सामंजस्य करते हुए अपने परिवार, समाज और संस्कृति की रक्षा केलिए संघर्ष और त्याग के बीच प्रसन्नता के साथ जीवनयापन करने का नाम है मघ्यवर्ग। सुदीप का यह ठेठ मध्यवर्गीय संस्कार उसका पीछा नहीं छोड़ता। माँ-बाप, भाई-बहन, सगे-संबंधी ईष्ट-मित्रों का आकर्षण सुदीप को सुलेखा के नपे-तुले पारिवारिक नियमावली से बाहर खींच लाता है। एैसे में सुदीप पुन: अपने उसी पुराने बृहत परिवार के कुशल सदस्य की भूमिका में आ जाता है। उसके चेहरे पर वही पुरानी स्वतंत्र उन्मुक्त हँसी आ जाती है जहाँ कोई संयम, किसी दिमागी कसरत की आवश्यकता नहीं होती। न कोई झूठ, न कोई बहानेबाजी, न कोई आरोप-प्रत्यारोप, और न ही जिम्मेवारियों से कन्नी काटने की अजीबोगरीब तरकीब। सब कुछ बिल्कुल सहज। शिकवे-शिकायत भी सहज और लार-दुलार भी सहज। पत्नी और परिवार के बीच की इन दो जीवन शैलियों के टकराव के मघ्य सुदीप के मन में अक्सर द्वंद उठता रहता है। इन्ही द्वंदों के कारण उसके अपने व्यक्तित्व की स्वतंत्रता खंडित हो गयी है। पत्नी और परिवार का मुंह देखी करते रहना उसकी आदत बन गई है। किन्तु जब भी वह बृहत परिवार की ओर मुखातिव होता है सुलेखा सतर्क हो जाती है। सुदीप की इस मानसिकता को देख कर आज भी सुलेखा विचलित हो जाती है। उसे लगने लगता है सबकुछ उसके नियंत्रण से बाहर होते जा रहा है। पर ऐसे समय वह घबराती नहीं है। वह एक कुशल बाजीगर की तरह संयम और कौशल से काम लेना जानती है। इन सब बातों के लिए वह सुदीप से झगड़ती नहीं है। वह अपने पति के कमजोड़ियों को जानती है, बल्कि ऐसे नाजुक क्षणों में तो सुलेखा ऐसा व्यवहार करती है, जैसे सुदीप से भी अधिक सुलेखा को ही अपने सास, ससुर, छोटी ननद, देवर की चिन्ता है। सुलेखा ऐसे समय में एक कुशल अभिनेत्री की तरह अपने व्यवहार मंे समुचित परिवर्तत ले आती है। सुलेखा का ऐसा विचार, व्यवहार देखकर सुदीप को अपनी पत्नी पर अपार स्नेह उमड़ उठता है। सुदीप पुन: पत्नी के कुशल पाश में बंध जाता है। सुदीप से सुलेखा की अभी-अभी बात हुई थी। आज सुलेखा के खुशी का कारण भी है। कई दिन से सुलेखा सुदीप से कह रही थी, 'अभी मार्केट में डिस्काउन्ट चल रहा है। चलो कुछमार्केटिं कर आते हैं। बड़े शहरों में डिस्काउन्ट का मौसम चलता ही रहता है। अनेक स्तरीय दुकानों में भी पच्चास प्रतिशत तक के छूट का बड़ा-बड़ा आकर्षक बैनर, पोस्टर लगा रहता है। इसबार तो बाजार में कहीं-कहीं सत्तर प्रतिशत तक के छूट का विज्ञापन है। इनमें से कुछ तो मौसमी डिस्काउन्ट सेल रहता है, और कई दुकानो में तो स्थायी तौर पर डिस्काउन्ट का बोर्ड लगा ही रहता है। यह पता कर पाना मश्ुिकल होता है कि वह वस्तु के क्वालीटी का डिस्काउन्ट होता है या वास्तव में दाम ही इतना कम कर दिया जाता है। जो भी हो पर आम मान्यता यही है कि अपने लिए खरीदना हो तो डिस्काउन्ट न भी देखते हैं लोग, किन्तु लेन-देन, पार्टी-सार्टी, में बिना डिस्काउन्ट के तो चल ही नहीं पाता। कम दाम रहने पर तो किसी को देने समय उपहार का टैग हटाना पड़ता है, किन्तु दाम का टैग पूरा का पूरा लगा रहे और उसपर से डिस्काउन्ट मिलजाय तो लेन-देन के मामले में समाज में इज्जत बनी रहती है। यही सुलेखा का मानना है। सुलेखा महानगर में ही पली-बढ़ी है। वह इज्जत के इस महत्व को भली भाँति समझती है। इसी लिए सुलेखा इन डिस्काउन्ट के खबरों पर नजड़ रखती है। वह सुदीप को भी जब-तब समझाने से नहीं चूकती, 'सब अपने-अपने ढ़ंग से जीवन जीते हंै सुदीप! अब तुम्हें भी, मतलब हम सब को भी अपने ढ़ंग से ही जीना चाहिए। हमेशा दुनिया के लिए सोच-सोच कर कबतक हम अपना सुख कुर्बान करते रहेंगे। अपने लिए इस फूट-पाथ की मार्केटिं कबतक चलेगी। देने-लेने के लिए चलो फिर भी ठीक है, लेकिन अपने लिए तो अब यह सब नहीं चल सकता। आखिर सोसाईटी में इज्जत भी तो देखनी होती है।` सुदीप कहता, 'किस सोसाईटी के इज्जत की बात करती हो सुलेखा ? कॉलोनी और ऑफिस के समाज की इज्जत का तुम्हें इतना खयाल रहता है। इस समाज की ज्यादे चिंता मत किया करो। यह समाज तो कल बना है। जो हमारा वास्तविक परिवार है, समाज है, वहाँ के कर्तव्यों में कोई चूक नहीं होनी चाहिए।` सुलेखा बोली, 'जहाँ रातदिन तुम रहते हो। उठते-बैठते हो वहाँ के सोसाईटी को हम कैसे इग्नोर कर सकते हैं। लगता है तुम्हारी नजदीक की दृष्टि कुछ खराब है। पास नहीं दिखता है। जिनसे साल में कभी एक बार मिलते हो या फिर जरूरत पड़ने पर काम-काज में जाते हो वहाँ की अधिक चिंता सताती रहती है। कबतक उन संबंधों को ढ़ोते रहोगे जो शरीर और मन से इतने दूर हैं।` सुदीप ने चिंतन की मुद्रा में कहा, 'भौतिक दूरी कुछ क्षण के लिए हो सकता है किन्तु मन से दूर कैसे कर सकती हो तुम उन्हें।` सुलेखा ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया, 'फार फ्रोम द साईट, फार फ्रोम द माईंड।` सुदीप ने भी एक पंक्ति कह डाली, ' वे दूर भी रहते हैं तो दूर नहीं होते।` सुलेखा तुनक गई, 'और मैं तुम्हारे पास रहकर भी पास नहीं होती। यही था तो तुमने शादी ही क्यों की। नहीं करते शादी। नहीं करते नौकरी। बस ब्रह्मचारी बनकर अपने परिवार और समाज के मोस्ट ऑबिडिएण्ट सेवक बने रहतेे।` सुदीप को लगा अब सुलेखा बिगड़ जाएगी। फिर वही रोना-गाना। उसने हथियार डालकर शन्ति का प्रस्ताव रखा। बोला, 'क्या फर्क पड़ा। परिवार, समाज के नहीं, न सही। आप के तो मोस्ट ऑबिडिएण्ट बन ही गए।` अब गुस्सा थूकिए। बोलिए क्या बोलना है? सुलेखा की बातों में छुपे आशय को सुदीप खूब समझता है। किन्तु जबतक हो सकता है वह उसे टालने की चेष्टा में रहता है। ऑफिस से थक कर घर वापस आने के बाद वह रोज के किच-किच से बचना चाहता है। एक तो काम की व्यस्तता रहती ही है उपर से छोटी-छोटी बातों को लेकर नोक-झोंक। इन सबसे बचने के लिए वह जहाँतक हो सकता है सुलेखा की जिद को स्वीकार करता रहता है। भले ही उसके भीतर इसके लिए द्वंद चलता हो। अक्सर वह दोहरी जिंदगी जीता है। वह अक्सर ऑफिस से ही अपने सगे-संबंधियों से संपर्कर रखता है तथा उनका खयाल रखता है। उनके लिए वह जो भी करता है वह बिल्कुल गोपन ही रहता है। लेकिन जब भी सुदीप के ऐसे किसी काम का राज सुलेखा के पास खुलता है तो घर में महाभारत और कैकेयी का कोप। किन्तु और कोई रास्ता भी तो नहीं दिखता। वास्तविक परेशानी तब होती है जब सुदीप के घर कोई उसके सगे-संबंधी आते हैं। किन्तु यह सब बादमें। अभी सुदीप की बात ही हम करें। सुदीप करीब-करीब हमेशा देर से ही घर वापस आता है। सुलेखा की फरमाइशों, उसके आउटिंग, मार्केटिंग के प्रोग्राम को लेकर वह टाल-मटोल करता रहता है, किन्तुु यह टालमटोल हमेशा तो चल नहीं सकता। आज सुदीप को कार्यालय से कुछ पहले निकलने का मौका मिला है, शनिवार जो है। अत: आज सुलेखा के साथ मार्केट का प्रोग्राम तय है। खाना भी बाहर ही खाना है। 'सटरडे` यानी वीकेण्ड, यानी मौज मस्ती का दिन। आज मार्केटिं, सिनेमा, होटल का दिन है। शहरी जीवन में वीकेण्ड का बड़ा महत्व है। जितना बड़ा शहर उतना ही महत्वपूर्ण 'वीकएण्ड`। वीकएण्ड यानी सप्ताहांत जिसकी प्रतीक्षा शहरों में ऐसे की जाती है जैसे महानगरों में 'वीकएण्ड` सालों के इन्तजार के बाद आता हेा। बड़े शहरों में महीने भर पर, छोटे शहरों में हफ्ते भर में, और गावों में? वहाँ तो सप्ताहांत की प्रतीक्षा जैसी कोई चीज ही नहीं होती। वहाँ वह जोश ही नहीं रहता, क्योंकि वहाँ तो जैसे रोज या फिर जब चाहो वीकेन्ड मना लो। महानगरों की तरह गाँवों में वैसी प्रतीक्षा नहीं होती जैसे साल में बस एक बार ही वीकएण्ड आता हो। सुलेखा महानगर में पली बढ़ी है। रहती भी महानगर में ही है अत: वीकेएण्ड की प्रतीक्षा भी उसी बेसब्री से करती है। आज फिर सुदीप का इन्तजार है, और घड़ी पर सुलेखा की नजड़। तभी कॉलबेल की चिर परिचित आवाज आई। सुलेखा, चिंटू और छोटी से 'बी-रेडी` कहकर स्वयंं को निहारते हुए चपलता से दरवाजे के पास गयी। अपने भाव को सहज बनाकर, मुस्कुराते हुए दरवाजा खोलते ही बोली, 'चलो आखिर आज समय पर आ ही गए तुम। तुमसे समय की बात करना तो मुश्किल है। ` सुदीप मुस्कुराने के चक्कर में मँुह बनाते हुए बेाला, 'अरे, समय पर ही तेा आया हूँ, घड़ी देखो। सुलेखा स्नेह मिश्रित फटकार के साथ बोली, 'छोड़ो- छोड़ो, तुम्हारी यह सब करतूत पुरानी पड़ गयी है। बहुत सिनेमा देख चुकी हूँ। तुमने घड़ी की सूई खिसका दी होगी।` शीघ्र ही सुलेखा अपने भाव को सहज बनते हुए बोली, 'लेकिन सुदीप अभी इस मजाक का वक्त नही है, जल्दी से बाथरूम जाकर फ्रेश हो आओ । मैंने पानी लगा दी है, बच्चे भी तैयार हैं। जल्दी करो ! नहीं तो फिर तुम्हारा कोई संकट आ जायगा।` सुलेखा की बात अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि सुदीप थोड़ा गम्भीर बनते हुए बीच में ही बोला, 'आज का प्रोग्राम ड्राप करते हैं सुलेखा, किसी और दिन चलेंगे।`सुलेखा तपाक से बेाल उठी, 'क्यों, ड्राप क्योंे करते हैं? यह वीकएण्ड क्यों मिस करें ? ` किन्तु शीघ्र ही सशंकित होते हुए बोली, 'कौन सा संकट फिर आ गया आज ?` सुदीप इशारे से जबतक सुलेखा को कुछ समझा पाता, तापस पर सुलेखा की नजड़ पड़ी। सुलेखा अपने चेहरे के भाव को सहज बनाने का असफल प्रयास करते हुए प्रश्नवाचक मुद्रा में तापस की ओर देखी। सुदीप जबतक तापस से उसका परिचय करा पाता, तापस स्वयं ही सामने आकर सुलेखा से बोला, 'मै तापस हूँ भाभी जी! अपने दोनो हाथ विनम्रता से जोड़ते हुए तापस ने फिर कहा, 'मैं ही वह संकट हूँ शायद।` गौरवर्णा, तन्वंगी, लम्बी तथा सलीकेदार सलवार कुर्ते में लिपटी, सुदीप की पत्नी को तापस पहली बार देख रहा था। होठों पर मुस्कान समेंटे, चपल दृग सुलेखा को देखकर तापस को लगा सुदीप कितना शौभाग्यशाली है। निश्चय ही यह गृहलक्ष्मी होगी । तभी तो सुदीप इतने आग्रह के साथ उसे घर ले आया। सुलेखा ने भी उसी माधूर्य के साथ जबाव दिया, 'अरे! नहीं-नहीं यह क्या कह रहे हैं आप !` सुलेखा अबतक सम्हल चुकी थी अैार झट हाथ जोड़ तापस का अभिवादन करते हुए उसने कहा, 'आईये न ! अन्दर आईये। फिर भीतर आते हुए मुस्कुराहट के साथ बोली, 'अरे भाईसाहब, हम लोगों का संकट तो लगा ही रहता है, मैं आपकी बात नहीं कर रही थी।` सुलेखा के होठों का माधुर्य कितना क्षणिक और बनावटी था वह सहज ही कोई भाँप नहीं सकता है। सुदीप जानता है कि सुलेखा को इस प्रकार किसी का घर आना कतई पसन्द नहीं था। उसके मुस्कान में कितनी करुआहट छिपी होगी यह सुदीप भली भाँति समझ रहा था। खासकर तब, जब उसका कोई अपना प्रोग्राम हो। और प्रोग्राम तो कुछ न कुछ हमेशा रहता ही है। सुदीप फिर भी चाहता था कि तापस के समक्ष सुलेखा की यही सौम्य छवि बनी रहे, जिसे सुदीप ने सुलेखा के सामने आते ही तापस की आँखों में देखा था।इसीलिए तापस से आँख बचाकर सुदीप अपराध बोध की दृष्टि से सुलेखा की ओर देखा। सुलेखा भी उपेक्षा की दृष्टि से सुदीप को देखते हुए किचेन की ओर बढ़ गयी। और जाते-जाते तापस सेऔपचारिकतावस पूछ ली, 'क्या लेगें आप भाईसाहब ? कुछ ठंढ़ा, गरम ?` 'नहीं मैं एक बार भोजन ही करूँगा। अभी कुछ नहीं।` तापस के इस उत्तर से सुलेखा के चेहरे पर पुन: प्रश्न का भाव जागा, उसने तापस से नजड़ बचाकर सुदीप की ओर देखा। जबतक सुदीप उत्तर देने को तत्पर हुआ, सुलेखा ड्राईंगरूम से बाहर चली गयी थी। पाँच मिनट किसी तरह तापस से इधर-उधर की बात करने के बाद कोई बहाना बनाकर सुदीप भी सुलेखा के पास बेडरूम मे जा पहुँचा। सुलेखा कुछ बोलती उसके पहले ही सुदीप सफाई देने की मुद्रा मंे कहना चाहा, 'देखो सुजाता...` अभी बात शुरू भी नहीं हुई थी कि बच्चे कमड़े से बाहर चले गए। बच्चे घर की ऐसी परिस्थितियों से परिचित हैं, स्थिति भाँपने और उसकी नजाकत को समझने में बच्चों को महारत हासिल होती है। उनकी भोली आँखों में 'ऑबजरवेशन` की कमाल की क्षमता होती है। इसीलिए जब भी उन्हें ऐसी परिस्थिति का आभास होता है, वे भाग कर अपने कमड़े में चले जाते हैं। चिंटू ने तो आदतन किताब में मुह छुप लिया और छोटी खिलौने में मशगूल हो गई।सुदीप अपराध बोध के साथ बोला, 'मैं क्या कर सकता था इसमें? 'टेक इट ईजी` यार ! बस आज रात भर की ही तोबात है, कल सबेरे चला जायगा।` 'क्या?` 'सुलेखा चौंकते हुए पूछी। 'अरे ! कहा न, बस आज रात की हीे बात है।` सुलेखा, 'मतलब वह आज रात यहीं रहेगा? कहाँ सुलाएँगे उसे बोलो ? जिस-तिस को घर ले आते हो। कई बार तुमको समझा चुकी हूँ कि इस दो कमड़े के मकान में जगह नहीं है। बच्चे बड़े होे गए हैं।` सुदीप के चेहरे पर लाचारी का भाव था। बोला, 'तो क्या करूँ? तुम ही बोलो ?` सुलेखा ने सपाट सा उत्तर दिया, 'साफ-साफ माफी माँग लिया करो। कहदो जगह कहाँ है मेरे घर में ? कहाँ रखोगे?` सुदीप, 'अरे वह कोई जबरदस्ती थोड़े ही आया है। मैं ने ही तो कहा, 'चलो मेरे घर, आज वहीं बात-चीत करेंगे। सुलेखा तुनक कर बोली, 'बात-चीत का इतना ही शौक था तो तुम भी उसीके साथ होटेल में ही रह गए होते। मुझे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था, मैं चिंटू, छोटी को लेकर घूम आती। केवल तुम फोन कर दिए होते, लेकिन इस बला को क्यों मेरे सर पर ले आए।` सुदीप आवाज धीमी कर बोला, 'अरे भाई, समझने की कोशिश करेा। वह हमारे रिश्ते में भाई होगा। एक समय हमलोग साथ-साथ पढ़े हैं। मैं ऑफिस से घर के लिए निकल ही रहा था कि अचानक वह आ गया। अब मैं क्या करता? वह तो जाने ही वाला था। पर मेरे मुँह से निकल गया, 'एैसे कैसे होगा, घर चलो। मुझे लगा वह नहीं मानेगा। किन्तु वह तुरत तैयार हो गया। हमारे साथ आते हुए तापस ने कहा, 'देखो इस समय यदि मैं तुम्हारे यहाँ जाउँगा तो.., फिर स्वयं ही कुछ सेाच कर बोला- 'अच्छा चलो आज रात तुम्हारे ही यहाँ रह लेंगे, और झट मोबाईल से उसने अपने गेस्टहाउस फोन कर दिया। अब तुम ही बोलो सुजाता, ऐसे में मैं क्या करता ?` सुलेखा मुँह बनाते हुए बोली, 'असल धूर्त है। अब जानो तुम, जाने तुम्हारा काम। भाई तुम्हारा होगा। मैं अपना प्राइवेट लाईफ क्यों डिस्टर्ब करूँंं? आज तो कुछ खाना भी नहीं बनाई थी। अब इस समय मेरे लिए किचेन जाना मुश्किल है।` कुछ रुककर फिर खीझते हुए बोली, 'तुम समझते क्यों नहीं? हमारे पास तुम्हारे पिता जी का खरीदा हुआ बंग्ला तो है नहीं। ये रोज-रेाज भाई, चाचा का झमेला। कई बार कह चकी हूँ इसे इग्नोर किया करो। 'मेट्रोपॉलिस लाईफ स्टाइल` में अपने को ढ़ालना पड़ता है सुदीप। कब तुम सीखोगे? क्यों भूलते हो कि दो कमड़े के मकान की तुम्हारी जिन्दगी है, और हम लोग गेस्टिं अॅफोर्ड नहीं कर सकते, चाहे कोई भी हो, कितना भी अपना हो। हमारा 'प्राइवेट लाइफ` है। मैं तुम्हें किसी के लिए कुछ भी करने से मना नहीं करती। लेेकिन सब कुछ हम अपने दायरे में ही रहकर कर सकते हैं, कुछ पैसेां से, और कुछ प्रोफेशनली। इमोशनल होने की जरूरत नहीं है। पर तुम्हारे साथ यही सबसे बरा प्रोबलॅम है सुदीप! कि तुम ईमोसन में फँस जाते हो। अब भी तो स्मार्ट बनेा। देखो इमोसन-उमोसन सब मिड्ल क्लास मेन्टालिटी है। इससे बाहर आओ, तभी चैन से जी सकोगे। ` सुदीप के मन में आया कि चिल्लाकर कह दे, 'बंद करो ये बकवास। रोज-रोज एक ही बात सुनते-सुनते कान पक गया है। मेरे चैन से जीने की चिंता तुम्हें कब से होने लगी ? लेकिन सुदीप इसका परिणाम जानता था। वह अभी घर में महाभारत नहीं खड़ा करना चाहता था। वह चाहता था कि इतने दिनों बाद अवसर निकाल कर तापस उसके घर आया है। हंसी-खुशी से वापस जाय। सुदीप ने सुलेखा की बातों का जबाब देने के पहले जोड़ से तापस को आवाज दिया, 'बस यार आया...। जड़ा कपड़े बदल कर आता हूँ। तुम तबतक टीवी देखो।` सुलेखा से मुखातिव होते हुए बोला, 'सुलेखा ठीक है कि हमलोगों का आज बाहर जाने का प्रोग्राम था। लेकिन आज नहीं फिर कभी। इतने दिनों बात तापस घर में आया है यह क्या कम खुशी की बात है। आखिर वह मेरा भाई है।`सुलेखा ने कहा मैं नहीं जानती यह सब। भाई होगा तुम्हारा मेरे लिए तो सरदर्द बनकर आया है। रोज-रोज तो कोई न कोई तुम्हारा रिश्तेदार बनकर आता ही रहता है। उनके लिए तुम बखूबी समय निकाल लेेते हो, लेकिन मेरे लिए तुम्हारे पास समय नहीं रहता है।`सुदीप के बर्दाश्त की सीमा टूट रही थी। उसके मन में अया कि साफ-साफ कहदे कि यह मेरा घर है। कौन घर मंे आय न आय यह मेरी मर्जी है। जिसे पसंद हो रहे नहीं तो चला जाय। किन्तु शीघ्र ही उसे तापस का खयाल आया। सुदीप मन मार कर बोला, 'तुम उसके खाने की चिन्ता मत करो मैं जल्द ही कहीं से पैक करवा कर लाता हूँ। ` सुलेखा- 'जो मर्जी करो मैं तो किचेन जाने से रही।` सुदीप निवेदन के भाव में सुलेखा से कहा- 'अच्छा ऐसा करो, तुम ही जाकर कुछ ले आओ न, हम तबतक तापस के पास बैठते हैं। क्या सेाचेगा वह, बोर भी होगा बेचारा।`` सुलेखा मुस्कुराई और व्यंग वाण चलाते हुए बोली, 'अहा..! उसके बोर होने की कितनी चिन्ता है तुम्हें? और मुझे जो बोर कर रहे हो उसका क्या ?` सुदीप निवेदन के लहजे में कहा, 'उसका भी कम्पनसेसन हो जायगा। अभी यह सब बातें छोड़ो, यह बोलो कि तुम जाओगी खाना पैक करवाने ?` आज की जिंदगी में हम शायद अक्सर जाने-अनजाने एक दूसरे को 'कम्पन्सेट` यानी क्षतिपूर्ति ही तो करते रहते हैं। परिवार में जभी यह हिसाब चलने लगता है वहाँ की शान्ति विलीन हो जाती है। सुदीप भी इसी हिसाब-किताबी जिंदगी में लगा है। उसने कुछ सोचते हुए कहा, 'ऐसा करते हैं उसे भी साथ ले लेते हैं और चलते हैं बाहर ही खाना खा आते हैं, वह भी क्या याद करेगा।` विचार सुलेखा को जंच गया। आउटिंग भी हो जायगा और खा भी लेंगे। किन्तु उसने कहा, 'पर यह तापस से तुम ही पूछो``।सुदीप ने निवेदन के लहजे में कहा, 'सुलेखा तुम ही पूछ लो न।` सुलेखा बेमन से हामी भरी। देानों बैठक में गए, तापस बैठक में रखे फिल्मफेयर में मुँह गारे हुए था, किन्तु शायद ही कुछ पढ़ रहा हो। सुलेखा पूरी सहजता से तापस से बात करने लगी, 'अच्छा तो भाई साहब! और सब सुनाइये, कितने दिन बाद मिल रहे हैं सुदीप से ? क्या-क्या गुल खिलाता था कॉलेज डेज में यह? तापस ने शायद टालते हुए ही कहा, 'अरे नहीं भाभी यह तो कॉलेज में भी उस चंडाल, 'चौकड़ी से अलग-थलग ही रहता था ।` सुलेखा लापरवाही से चुटकी लेते हुए बोली, 'अरे !भाई साहब, यह तो उल्टा ही हो गया । तापस चौंकते हुए पूछा- 'क्या हुआ?` सुलेखा बनावटी शिकायत की मुद्रा में बोली, 'देखिये न पहले आपका यह दोस्त चंडाल-चौकरी से अलग-थलग रहता था। पर अब तो अधिक ही मिक्स करने लग गया है, कहते हुए सुलेखा ने व्यंग्य भरी मुस्कान से सुदीप को देखा। तापस ने बनावटी लहजे में कहा, 'अच्छा.., तब तेा पक्का आपका ही असर होगा भाभी जी! ` सुदीप, सुलेखा की बातों में अंतर्निहित अर्थ को भाँपते हुए सुलेखा से इशारों में ही बात टालने का अनुरोध किया और तापस से होटल वाली बात पूछने का निवेदन किया। सुलेखा को सुदीप का यह ईशारा अच्छा लगा और वह झट तापस से पूछी- भाई साहब! आप कैसा खाना, खाना पसन्द करते हैं। 'अरे भाभी, आज तेा बस आप जैसा भी खाना खिला दीजिए वही हमारी पसन्द ।` तापस ने सहजता से उत्तर दिया। सुलेखा बनावटी आग्रह से, 'तो चलिए हमलोग आज बाहर चलकर ही खा लें, मंै अपने पसन्द का खाना खिलाउँगी।` सुदीप भी सुलेखा की हाँ में हाँ मिलाया, 'हाँ चलो तापस, आज बाहर ही खाते हैं, मजा आएगा।` तापस बेफिक्री से बोला, 'क्या यार तुम भी। बाहर कहाँ जाओगे? बाहर तो खाते ही रहते हैं। आज तो भाभी के हाथ का खाना ही चलेगा। फिर सुलेखा की ओर मुखातिव होकर मुस्कुराते हुए बोला, 'मैं तो भाभी! आपही से मिलने आया हूँ।` सुलेखा के मन में हुआ कि वह मुँह बिचका कर कह दे 'मान न मान मैं तेरा मेहमान` पर वह अभी सुदीप को नाराज नहीं करना चाह रही थी, वह जान गई थी कि पहले ही सुदीप को बहुत कुछ कह चुकी है। इसीलिए मन पर काबू रखकर उसने तापस को कहा, 'अरे तापसभाई, आप तो जानते हैं। महानगर की जिन्दगी है हमारी, और किचेन तो बस, भाई साहब! समझ लीजिए कि 'स्टेण्डबाई` है। दिन में खाने की जरूरत ही नहीं पड़ती और (सुदीप की तरफ इशारा कर) यहतो हवा पीता है दिन में । `` बीच में ही सुदीप सफाई देने के लहजे में बोला, 'बात यह है तापस कि दिन में मैं घर तो आ नहीं पाता, बिटिया और छोटकू के लिए तो बस दो मिनट फूड कुछ रहता ही है। उन्हें पसन्द भी है। फिर मुँह बनाकर बोला, 'ओह दीज ट्वेन्टी फर्स्ट सेन्चूरी किड्स`। बच्चों का नाम सुनते ही तापस को जैसे कुछ याद आया। उसने तपाक से जेब से चाकलेट निकालते हुए कहा, 'सुदीप ! बच्चों से तो मिलवाओ। सुदीप बनावटी तत्परता दिखाते हुए बोला अरे, यह तो भूल ही गए। वह बच्चों को आवाज देने ही वाला था कि सुलेखा बोल उठी, 'अब याद आने से भी क्या फायदा, तुम्हारा तो दिमाग समय पर काम ही नहीं करता है। फिर मुस्कुराकर बोली, 'ट्यूबलाईट जो हो। सुलेखा तापस की ओर मुखातिब होकर अतिशय शालीनता चेहरे पर समेटते हुए बोली, 'असल में भाईसाहब ! महानगरों में बच्चों की जिन्दगी तो मनोवैज्ञानिक शोध का विषय बन गया है। बच्चे इतने थक जाते हैं कि या तो टीवी देखेंगे या फिर सोएँगे। टीवी के पास हमलोग जो बैठे थे, लगता है बोर होकर सो गए। 'कहते हुए सुलेखा दूसरे कमड़े में चली गयी। पाँच मिनट इधर-उधर की बातें कर सुदीप भी सुलेखा के पीछे-पीछे गया, उसके चेहरे पर अब वास्तविक क्षोभ व्याप्त हो गया था। खीझ के शब्दों में ही बोला, 'यह क्या सुलेखा उसे बच्चों से मिलवा देने में तुम्हारा क्या जाता था। सुदीप के खीझ का सुलेखा पर कोई असर नहीं हुआ। वह उदासीन भाव से बोली, 'तो ले क्यों नहीं आते यहीं। इस बेढंगे कमड़े में, ले आओ यहीं और गप्पें लड़ाओ। कोई प्राईवेसी है कि नहीं हमारी। ` सुदीप अपनी खीझ दबाते हुए कहा, 'सुलेखा वह कोई बाहरी आदमी नहीं है, अपना भाई ही तो है, और यह कोई विदेश नहीं है जहाँ इतना फार्मेल्टी चलता है, यह घर है, होटल नहीं ।` सुलेखा तुनक कर बोली, 'हाँ जानती हूँ, यह विदेश नहीं है। विदेश रहता तो इतनी परेशानी भी नहीं रहती। इस रोज-रोज के गेस्ंटिग से छुटकारा तो रहता। खैर, मुझे तुमसे बहस नहीं करनी है, अभी बच्चे पढ़ रहैं। पन्द्रह दिन बाद उनका 'एग्जाम` है। उन्हें पढ़ने दो, डिस्टर्ब मत करेा।` सुदीप सुलेखा से बहस नहीं करना चाहता था। उसे पता है, सुलेखा के पास बेशुमार अनाप-शनाप तर्क है। वह आगे क्या-क्या बोलेगी वह भी सुदीप को अब कण्ठस्त हो चुका है। अब तो पत्नी से हाँ में हाँ मिलाना उसकी आदत सी बन गयी है। सुरू में सुदीप इन बातों पर खूब लड़ता झगड़ता था। कई-कई दिनों तक तना-तनी बनी रहती थी। खुब रोना-गाना होता। अंत में सुदीप को ही सुलह करनी होती। आखिर करे भी क्या। फिर वही मध्यवर्गीय चिंतन आरे आ जाती। समाज, संस्कृति। घर परिवार की परम्परा, मान-मर्यादा का स्मरण कर वह चुप लगा जाता। किन्तु अब बात बदल चुकी है। सुदीप का सोच भी अब सुलेखा से मेल खाने लगा है, सुधीर के इसी सुधार से तो सुलेखा के चेहरे पर अब आत्मबल और संतुष्टि झलकता रहता है। सुदीप ने सुलेखा से निवेदन के लहजे में ही पूछा, 'अच्छा खाने का क्या कर रही हो ? सुलेखा उदासीन भाव से बोली, 'करना क्या है, मैं तो बना नहीं रहीं हूँ । तो...? सुदीप परेशान होते हुए पूछा। सुलेखा सहजता से मुस्कुराते हुए बोली, 'तो क्या मैंने 'होम डिलेवरी` को फोन कर दिया है, लाता ही होगा। हाँ, पर बिल तुम्हीं पेमेन्ट करेागे। फिर बनावटी आदेश के मुद्रा में बोली, 'अब जाओ, अपने प्रिय 'भ्राता-कम-मित्र` से बातें करो। खाना आने पर लगा दूँगी। अब मुझे डिस्टर्ब नहीं करो।` सुदीप एक आज्ञाकारी बालककी तरह तापस के पास चला गया । तापस के चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा का भाव स्पष्ट झलक रहा था। सुदीप और सुलेखा के आपसी व्यवहार ने उसके मन में अनेक शंकाओं को जन्म दे दिया था। तापस के चेहरे पर स्पष्ट झलक रहे भावों को भाँपने में सुदीप को समय नहीं लगा। उसने स्पष्टीकरण के लहजे में कहना प्रारम्भ किया, 'एक्चुअली यार, हमलोगों की जिन्दगी भी कोई जिन्दगी है, परिवार के लिए भी समय नहीं मिलता है। बच्चों को भी पूरा समय नहीं दे पा सकते हो। यह तो सुलेखा है कि`...।` तापस सुदीप की बात काटते हुए बीच में ही पूछा- 'खैर बताओ चाचा-चाची सब ठीक तो हैं ?` सुदीप प्रश्न में सन्निहित भाव को भाँपते हुए तत्परता से बोला, 'हाँ, अच्छे हैं, कोई असुविधा नहीं है उन्हें। अभी कुछ दिन पहले ही तो आए थे। पर जानते हो, वे लोग यहाँ रहना ही नहीं चाहते। हम लोग तो कई बार कहते हैं। सुलेखा भी कहती है, पर यहाँ उन्हें मन नहीं लगता। असल में दो कमड़े का ही घर है, उन्हें यहाँ असुविधा होने लगती है। तापस पूछना चाहा, उन्हें दिक्कत होने लगती है या तुमलोगों को असुविधा होती है ? परन्तु हालात देख उसने चुप ही रहना उचित समझा। सुदीप ने फिर कहा, 'लेकिन वे कहीं भी रहें हम उनका पूरा घ्यान रखते हैं। दवा, कपड़ा किसी भी चीज की कमी नहीं होने देता हूँ उन्हें। तापस चुपचाप सुन रहा था, प्रश्न भरे नेत्रों से कहा 'हाँ...`। सुदीप कहता रहा, 'अब तुमसे तो कुछ छुपाने की बात नहीं है, विश्वास करेा हमारे पास रहें तो मेरा उन लोगें पर कम खर्च हो। पर दूर रहने से तो मेरा कमाई का अधिकांश भाग तो उनपर ही खर्च हो जाता है। फिर मेरा और सुलेखा का भी तो कुछ पर्सनल लाईफ है। अब शायद उन्हें याने पापा, मम्मी को यह पसन्द नहीं है। `` तापस के चेहरे पर व्यंग्य का भाव था। उसने अपनीमुस्कान रोकते हुए कहा, 'तुम तो बहुत खयाल रखते हो उन सबका। और दो कमड़े की जिन्दगी में इस से अधिक कर भी क्या सकते हो ?` सुदीप ने कहा, सामंजस्य, एडजस्टमेंट तो सब को करना ही होता है। मैं भी करता हूँ। तुम भी करते होओगे। उन लोगों को भी तो करना ही चाहिए। बातों का क्रम बीच में ही टूट गया। सुलेखा खाना लेकर आ गयी। खाना पड़ोसते हुए सुलेखा मुस्कुराकर बोली, 'देखिए भाईसाहब ! मैं अपने पसन्द का खना आपको खिला रही हूँ, फिर नहीं कहिएगा किकृ। तापस सुलेखा की बातों को अनसुनी करते हुए पूछा, 'बच्चे नहीं खाएँगे क्या? 'इस प्रश्न का संक्षेप में उत्तर देते हुए सुलेखा ने प्रसंग बदल दिया, 'वो तो खा लिए आप क्या लीजिएगा सो कहिए। तापस भी यंत्रचालित सा उत्तर दिया, कुछ नहीं। अब कुछ भी नहीं।` सुलेखा सुदीप से मुखातिव होकर बोली, सबेरे का तुम्हारा क्या प्रोग्राम है ? जबाब में सुदीप तापस की ओर देखकर पूछा, तापस तुम्हारा क्या प्रोग्राम है? तापस को लगा प्रोग्राम तो स्वयं रास्ते में सुदीप बना चुका था। फिर.. इस प्रश्न का क्या मतलब है। परन्तु प्रश्न का आशय समझ कर, अपना मनोभाव छुपाते हुए तापस बोला, 'अब मेरा क्या प्रोग्राम पूछते हो? मिलने आया था सेा मिल लिया। तैयार होकर सबेरे दस बजे तक चल देना है।` सुलेखा सुदीप की ओर देखकर बोली, 'मैं तो सबेरेबच्चों को लेकर स्कूल चली जाउँगी। फिर तुम? सुलेखा का भाव भाँपते हुए सुदीप बोला, 'तुम जाओगी कैसे? गाड़ी ले लूँगी। फिर मेरा ? सुदीप ने जिज्ञासा भरी दृष्टि से सुलेखा की ओर देखा। जबाव सुलेखा ने संक्षेप में दिया, 'सो तुम जानो। तुम भाई साहब के साथ दस बजे लिकलोगे। लेकिन मुझे और बच्चों को तो सबेरे ही निकलना है। और दिन तो तुम साथ चलते थे।` तापस इन दोनों के वार्ता का आशय जानकर बोला, 'मुझे भी तो सबेरे ही निकलना था। मुझे लगा तुम दस बजे तक रुक रहे हो इसीलिए मैंने दस का नाम कहा। सुदीप ने अब आग्रह से कहा, नहीं इस वजह से तुम अपना प्रोग्राम मत बदलो। ऐसा करते हैं कि हमलोग चाभी छोड़कर जाएँगे, तुम आराम से तैयार होकर निकलना। कब मौका ही मिलता है, इतने दिन पर तो आए हो। तापस सुदीप के आग्रह पर पुन: बेफिक्री से बोला, 'तो फिर तुम भी कहाँ जाओगे सबेरे। छोड़ो कल का प्रोग्राम, 'लेट्स इनज्वाय द डे`। सुलेखा बीच में ही बोली, 'सुदीप और इन्ज्वाय द डे एट होम` मत पूछिए। कई बार मैं कहती हूँ। पर ये तो प्रेसिडेंट बुश हैं, नो टाइम! अभी ही जबाव सुन लीजिए, रुक सकता है क्या? बोलो, बोलो सुदीप, भाईसाहब को जवाब दो। भाईसाहब, कह रहे हैं तो आज रुक ही जाओ न।`` सुलेखा का बोलना था कि सुदीप मुँह बनाते हुए बोला, 'तापस हमलोग तो मजदूर हैं, काम करो तेा खाओ नहीं तो ..। मुझे जाना तो पड़ेगा ही, पर तुम आराम से निकलना।` सुलेखा अपनी मुस्कान छुपाते हुए बोली, 'देखा भाईसाहब आपने, यही हाल है इसका, मैं तो परेशान रहती हूँ, और इसके सभी परिवार वालों को लगता है कि इसके पास बस मेरे लिए ही समय रहता है। 'बस करो सुलेखा` सुदीप ने बनावटी खीझ जाहिर करते हुए कहा। 'फिर तापस से मुखातिव होकर बोला, 'यह भी तुम्हारा ही घर है तापस, चाहो तो आराम से निकल सकते हो। हम चाभी छोड़ जाएँगे। तुम जाते समय-लक्षित जगह की ओर दिखाकर- यहाँ चाभी रख कर जा सकते हो। 'हमारा और सुलेखा का यही एरेन्जमेंन्ट रहता है।` तापस निश्चयात्मक भाव से बोला, 'नहीं-नहीं मैं सबेरे ही निकलूँगा।` अब सुलेखा की बारी थी, बोली, 'लेकिन भाई साहब! इसी तरह कभी-कभार आ जाया कीजिए। हम लेाग तो ऐसी जिन्दगी जीती हैं कि किसी को आग्रह भी नहीं कर सकती, और फिर यह घड़ौंदा नूमा घर। सच भाई साहब! बहुत कम्प्रोमाइज करना पड़ता है। सुदीप के माँ, पिताजी को भी यही बुड़ा लगता है। आप तो समझ सकते हैं हमारी परेशानी।` तापस हामी तो भर रहा था लेकिन मन ही मन उसे सुदीप पर तरस भी आ रहा था, 'कैसा हो गया है सुदीप? जोड़ू़ का गुलाम। सुदीप ने कहा, 'तो तापस पक्का रहा सुबह का प्रोग्राम। हम चाय साथ में पीएँगे और फिर...। सुलेखा बीच में ही बोली, अरे पागल हो? तुम यदि मेरे साथ निकल रहे हो तो उतना सबेरे इन्हें जगाकर क्यों चाय पिलाओगे। मैं चाय बनाकर थर्मस में रख दूँगी और कैशरोल में नश्ता रख दूँगी`। सुदीप प्रसंशा की मुद्रा में सुलेखा की ओर देखकर बोला, 'उतना सबेरे तुम नाश्ता बना सकोगी? सुलेखा, 'उसकी चिन्ता तुम मत करेा। गेस्ट के लिए इतना करना ही पड़ता है। और मैं तुम्हारी तरह ट्यूबलाईट तो हूँ नहीं। सबेरे केलिए मैंने नाश्ता मँगवा रखा है। सुदीप बोला, 'देखो तापस हमें सुलेखा की यही बात बहुत पसन्द आती है। बहुत पहले सोचती है। फिर यहाँ तो तुम्हारी बात है। इसे तुम्हारे बारे में सब पता है। 'सी इज वेरी कन्शर्न एबाउट यू`।` तापस व्यंग्य भाव से बोला, 'हाँ सुदीप ! तुम लोग बहुत आगे का सोचते हो।` सुदीप, 'अरे अब तुम्हारे लिए नहीं सोचेंगे तो फिर..। कुछ भावुकता के साथ कहने लगा, 'साथ पढे, साथ खेले, बचपन में तुम्हारे यहाँ कितने दिन रहे हैं। तापस ने सहज भाव से कहा, 'फिर तो यह भी जानते होगे कि मैं कितना भुल्लकर हूँ। मुझे सबेरे-सबेरे ही निकलना होगा। एक व्यक्ति से मिलना है। वह भी घर से सबेरे ही लिकलता है। ` सुदीप ने आपत्ति नहीं की बोला, 'ऐसा है? तब तो साथ ही निकलते हैं। चाय तो सबेरे साथ पी सकेंगे। आज के युग की तो यही त्रासदी है। साथ-साथ एक कप चाय पीने की भी मोहलत नहीं देती। अब लो तुम इतने दिन बाद मिले और ठीक से बातें करने का भी समय नहीं निकल सका। सोसल लाईफ तो तुम एफोर्ड ही नहीं कर सकते।` खाना खत्म हो चुका था सुदीप ने कहा, 'तापस तुम भी थके हो आराम करो। सुदीप कमड़े का लाईट ऑफ कर दिया। तापस के पास सोने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था। वह बिछावन पर लेट गया । तापस के मन में विचारों का ऐसा तरंग उठ रहा था जो शान्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था। क्या महानगरों में केवल नगर ही महान होता है। व्यक्ति छोटा हो जाता है? किन्तु और लोग भी तो महानगरों में रहते हैं। क्या सब ऐसे ही होंगे। और यह सुलेखा? ईश्वर ने इतनी उदारता से शरीर सौष्ठव और सौन्दर्य प्रदान किया, परन्तु शायद मन का सौन्दर्य प्रदान नहीं कर सके, दिल उदार नहीं दे सके। यहाँ उन्हों ने कंजूसी करली। इतने शौम्य चेहरे के पीछे इतनी कृतृमता? इतना बनावटी पन। चाचा जी तो सीधे सपाट व्यक्ति हैं, यहाँ कैसे रह सकते थे। और यह सुदीप ? यह तो इतने पैसे का हिसाब जोड़ने लगा है कि..। तापस ऐसे अनेक प्रश्नों का जबाव ढूँढ़ते हुए जाने कब नींद की गोद में समा गया। सबेरे उठकर जबतक तैयार हुआ, देखा सुदीप चाय के साथ हाजिर है। पर तापस को आश्चर्य हुआ सुदीप अभी नाईट ड्रेस में ही था। कुछ प्रश्न भरे नेत्रों से सुदीप को देखकर तापस बोला, अरे! तुम अभी तक तैयार नहीं हुए? सुदीप सकुचाते हुए बोला, 'हाँ देखो न नींद खुलने में थोड़ी देर हो गयीे । मैंने देखा, तुम तैयार हो गए हो । तुम्हें देर न हो इसीलिए पहले चाय ही बना लिया। अब तुम्हें विदा कर ही तैयार होने जाउँगा। फिर बनावटी मुस्कान के साथ बोला,'चाय तो साथ पी लें।` तापस आगे कुछ नहीं बोला, शीघ्र ही उसने चाय गटक ली और चलने केा उठा, सुदीप ने सुलेखा को आवाज दी, तापस बोला, 'अरे भाई, उन्हें क्यों परेशान कर रहे हो?` सुदीप, 'परेशान? कैसी परेशानी, बिना मिले यदि तुम्हें जाने दिया तो मेरी तो खैर नहीं, समझे। तबतक सुलेखा नाइट गॉन में ही उठकर आ गयी। अत्यन्त अनुराग से बाली, अरे आपतो एकदम से तैयार ही हो गए। चलिए आप आए तो...! वर्णा आज के युग में कौन किसकी खबर लेता है। बहुत अच्छा लगा फिर आइयेगा। अभी तो बस हमलोग भी निकलेंगे ही। हाँ...हाँ कहते हुए तापस शीघ्र सीढ़ियों से उतर गया। वास्तव में तापस की गाड़ी शाम में थी। वह समय बिताने के लिए एक मार्केट कम्प्लेक्स में घूम रहा था। अचानक उसकी नजड़ सुदीप, सुलेखा और बच्चों पर पड़ी। उसके कदम उत्साह वश एकाएक उधर बढ़ गए, पर अगले ही क्षण जैसे किसी ने पीछे से तापस को रोक लिया। तापस उसी क्षण सुदीप की दृष्टि से बचकर अपनी दिशा बदल लिया। सेाचने लगा, कल ही की तो बात है, इतनी दूर से जिससे मिलने आया था, आज वह उत्साह कहाँ चला गया ? आखिर हुआ क्या? कुछ भी तो नहीं? पर उसे लगा, कल तक सुदीप दूर रहकर भी उसके कितना निकट लगता था। पर आज इतना निकट होते हुए भी जैसे कोसों दूर हो गया है। क्या वास्तव में यही होता है दो कमड़े की जिन्दगी? परन्तु क्या, कमड़ा छोटा होने से दिल भी छोटा हो जाता है? कैसे रंग बदलता था बीबी के सामने, ढ़ोंगी। सुदीप का चेहड़ा याद कर तापस को मन ही मन हँसी आने लगी। किन्तु देसरे ही क्षण उसकी हंसी चिंतन में बदल गया। उसे लगा सुदीप ने इशारों में ही एक बड़ी बात कह दी थी। 'एडजस्टमेंट`, उसने कहा था सामंजस्य तो करना ही पड़ता है। किन्तु क्या सामंजस्य का मतलब है अपने व्यक्तित्व को विलीन कर लेना ? ऐसे सामंजस्य के साथ मनुष्य खुश कैसे रह सकता है? क्या सुदीप खुश है ? ऐसे अनेक प्रश्नों मंे उलझ गया तापस। उसे अब कोई गम नहीं था । मन ही मन बुदबुदाया, 'मेट्रोपालिस लाइफ ! दो कमड़े की जिन्दगी, न: देा कमड़े का मन, एक में मियाँ-बीबी, एक में बच्चे, बस..।``
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रविवार, अक्तूबर 15, 2006

आस्था की अकाल मृत्यु

आस्था की अकाल मृत्यु
शहरों के सड़कों की हालत और यातायात भला किसे नहीं विचलित करता है। ऐसा शायद ही कोई हो जो सड़क पर निकले और यातायात व्यवस्था केा नहीं कोसता हो। खासकर जब ऑफिस जाने का समय हो और आप अपनी स्कूटर या मोटर साईकिल को रिक्सा के पीछे-पीछे रूक-रूक कर चलाने के लिए विवश हों। 'अरे भाई ! देख कर नहीं चल सकते क्या ? कितना लाइन बनाइयेगा ? अजब हाल है ! लगता है सड़क जैसे इनके बाप की हो......। वहाँ देख्एि ट्रैफिक कान्सटेबल किनारे खड़े खैनी चुना रहा है, सा...ला....! इस देश का कोई माई-बाप नही है क्या ? साले हराम का पैसा खाते हैं। अबे साले हट !` पटना की सड़कों के भीर-भार के बीच आपकेा ये शब्दावली सहज ही सुनने को मिल जाएँगे। सड़क की भीड़-भाड़ में पाँव रखने तक की जगह नहीं उसपर से भँति-भाँति की सवारी, बोरे से लदी बैलगारियाँं, रिक्सा, बांस से लदा ठेला, टमटम, टेम्पो और इन सब के बीच आम लोगों को ललचाती रंग बिरंगी कीमती कारेां की पें...पें..., पेां...पों..., टें...टें..। दुरुस्त सड़कों का कहीं नामो निशाँ नहीं। यहाँ के सड़कों पर ये नजाड़े आम हैं। ऐसी ही एक भीड़ भरी सुबह रमेशबाबू भी पसीने से तर-बतर, चिड़चिड़ाये हुए से अपने कार्यालय पहँुचे। घर से बैंक पहुँचने में करीब एक घंटे, पैंतालिस मिनट तो लग ही जाते हैं। देर हो रही थी। कितना भी सबेरे तैयारी सुरू करे, पर घर का काम, नास्ता-पानी करते, समय कैसे निकल जाता है पता ही नहीं चलता। भाग दैार मची ही रहती है। रमेशबाबू की एक आँख घड़ी पर टीकी थी और मन ही मन वे बैंक की नौकरी केा कोसते हुए ऑफिस में प्रवेश किए। बैंक मैनेजर के चैम्बर के एक कोने में रखे फाइल कैबिनेट के उपर अपना हैलमेट रखते हुए अपने टेबल पर जाकर बैठ गए। पसीना पोछते हुए सोच रहा थे, चाहे जो कर लो पर बैंक की नौकरी नहीं करेा। बैंक की ऑफीसरी से तो किरानीगिरी अच्छा है। कम से कम व्यक्ति समय पर घर तो वपस जा सकता है। उनकी जिम्मेदारियाँ भी कम होती हैं। यहाँ तो जैसे नौकरी नहीं की, गुलामी कर ली। एक मिनट की भी फुर्सत नहीं। घर में भी रोज किच-किच। लेकिन कर ेक्या? बैंक की जिम्मेदारियों के सामने परिवार की जिम्मेदारियाँ तो गौण हो ही जाती हैं। एक ओर रमेश के मन मेे इसी प्रकार की चिन्तन प्रक्रिया चल रहीं थी और दूसरी ओर वे यंत्र चालित से रुटीन फाईल भी निबटा रहे थे। इतने में अचानक एक बृद्ध व्यक्ति सोर मचाता हुआ रमेशबाबू के कमड़े में प्रवेश किया । उस व्यक्ति की आयु लगभग साठ-बासठ की होगी। कमड़े में घुसते ही वह व्यक्ति जोड़-जोड़ से बोलने लगा - 'मैंने पैसा नहीं लिया है सर ! मेरा यकीन किजिए, मैं ने कोई लोन नहीं लिया है। ये लोग बे वजह मुझे फँसाना चाहते हैं। यह चिट्ठी फ्राड है सर...! इतना पैसा तो मैंने जिन्दगी में कभी देखा ही नहीं ! ` बनारसी जोर-जोर से रमेश के कमड़े में आकर चिल्ला रहा था। रमेशबाबू चिढ़ गए, 'चुप....! चुप रहिए आप । बक-बक किए जा रहे हैं। मुझे बात समझने दीजिए।` बनारसी रुकनेवाला नहीं था। उसने फिर कहना सुरू किया, 'यह देखिए सर....! जड़ा देखिए तो सही....? कितना फ्रॅाड मचा रखा है, आपके बैंक ने।` रमेशबाबू ने देखा उस व्यक्ति का चेहरा तमतमाया हुआ था। तनाव के कारण उसके शरीर की नसें उभर आयीं थीं। उसके कपाल पर चिंता की मोटी रेखाएं खिंची थी। अपने स्वभाव के अनुसार रमेशबाबू ने शान्त भाव से कहा, 'कैसी बे सिर पैर की बातें कर रहे हैं आप ? कैसा फ्रॅाड, किस फ्रॅाड की बात कर रहे हैं आप ? उस बृद्ध ने कहा, 'देखिए सर.....! यह कागज देखिएसब कुछ समझ में आ जाएगा। मैं एक महीने से आप के ऑफिस का चक्कर लगा रहा हूँ, लेकिन यहाँ तो कोई सुनने वाला ही नहीं है।` रमेशबाबू ने कागज अपने हाथ में लेते हुए कहा, 'पहले बैठ जाईए, इतने गुस्स्ेा मेें क्येंा हैं आप, क्या है इस कागज में, बोलिए?` वह व्यक्ति थोड़ा शान्त हुआ, फिर बोलने लगा- 'चिल्लाएं नहीं तो क्या करें सर...? आज महीने भर से परेशान हूँ। आपके ऑफिस का चक्कर लगा रहा हूँ, लेकिन ये लोग कुछ सुनते ही नहीं।` तबतक कक्ष में बैंक के अन्य कर्मचारी भी प्रवेश कर चुके थे । बनारसी को देखते ही बोलने लगे, 'सर ! अजीब आदमी है यह महीने भर से चक्कर लगा-लगा कर सर खा गया है।` बृद्ध फिर भरक उठा, 'मैं अजीब आदमी हूँ। शरम नहीं आती है कहते हुए? मैं जानता हूँ आप सभी मिलकर मुझे लूटना चाहते हैं, और उल्टा मैं ही अजीब हो गया। मैं ऐसा अन्याय नहीं होने दूँगा। क्या समझ लिया है आप लोगेां ने, यहाँ कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज है कि नहीं ?` रमेशबाबू ने अपने कर्मचारियों को शान्त रहने का निर्देश देते हुए कहा, आपलोग शांत रहिए। इनकी बात मुझे सुनने तो दीजिए। आखिर कोई व्यक्ति इतना परेशान होकर क्यों रोज-रोज बैंक का चक्कर लगाएगा। उसकी परेशानी भी समझनी चाहिए।` रमेशबाबू फिर उस व्यक्ति की ओर मुखातिव होकर बोले, 'आप खुद बोलिए, क्या हुआ है ? बृद्ध रमेश की बातें सुनकर कुछ शांत हुआ। बोला, 'सर, मेरा नाम बनारसी है। आप के बैंक से मुझे इनलोगों ने चिट्ठी भेजी है। कहते हैं मंैने लोन लिया है। और बार-बार तगादे कि चिट्ठी भेज रहे हैं। सर...! लेकिन आज तक मैंने किसी भी बैंक से कोई लोन लिया ही नहीं। मैं झूठ नहीं बोलता सर...! ये लोग केस करने की धमकी भी दे रहे हैं, ताकि दबाव बनाकर मुझसे कुछ पैसे ऐंठ सकें। ऐसी घांधली तो मैंने कभी देखी ही नहीं। मैं ने भी तीस बरस पुलिस की नौकरी की है सर...! सब दाँव -पेंच जानता हूँ। डिप्टी साहब मुझे इतना मानते थे कि मैं क्या कहूँ।` एक साँस में ही बनारसी सब बोल गया। रमेश उसे शान्त करने के लिए उसकी बातों में रूचि दिखलाई, बोले, 'कौन डिप्टी साहब ? बनारसी बोलने लगा, 'अरे साहब, वे ऑफिसर नहीं भगवान हैं । बड़ा नेक साहब है सर! मैं उन्हीं के अन्दर में पिछले पाँच छ: वर्षों से ड्यूटी पर था। जेल के डिप्टी सुपरिन्टेन्डेन्ट हैं सर ! आप नहीं जानते उन्हें ? उनका नाम हैं आर.सी. सिंह। बनारसी को लगा कि वह साहब के नाम के साथ न्याय नहीं कर रहा है। भारत की सांस्कृतिक विरासत को अपने में समेटने वाला एक से एक नाम पिता अपने पुत्र के लिए चनते हैं। उनकी कामना रहती है कि नाम के प्रभाव से उनके संतान के व्यक्तित्व में निखार आएगा। किन्तु वे ही नाम अंग्रेजी के प्रभाव में आकर अपनी अहमियत गंवा बैठते हंै। अंग्रेजी वर्णमाला के प्रथम अक्षरों में संक्षिप्त हो चले नाम मनुष्य के व्यक्तित्व को ही कुण्ठित कर देता है। तेज बहादुर सिंह हो जाते हैं 'टीबी` सिंह, प्रेम कुमार हो गए 'पीके`, बुद्धि नाथ हो गए 'बीएन`, उमापति हो जाते हैं 'युपी`। अत: बनारसी ने फिर कहा, सर उनका पूरा नाम 'रामचन्द्र सिंह है। क्या बताउँ साहब जैसा नाम वैसा ही इन्सान हैं सर ! कोई भी काम लेकर जाओ तुरत निबटारा । कोई कागज आजतक रोक कर रखा ही नहीं सर ! कहीं से यदि कोई आमदनी भी हुआ तो हमलोगों को भी चाय पान करा ही देते थे। मैं सिनियर कान्सटेबल था। उन्हीं के ड्युटी में रहता था।` फिर रुक कर बोला, 'खैर छोड़िये सर ! मैं ने भी दुनिया देखी है, पर इस तरह का अन्याय नहीं देखा। ऐसी जाली चिट्ठी ये लोग भेज देते हैं, खाली पैसा ठगने के लिए। पर वह सब यहाँ नहीं चलेगा। मैं यदि डिप्टी साहब को कह दूँ तो इन सब की नौकरी चली जाय। डिप्टी साहब का बहुत लम्बा हाथ है सर ! ये लोग महीने भर से मुझे परेशान कर रहे हैं। इसीलिए आज खास कर आप से मिलने आया हूँ। एक सज्जन ने मुझे आपका नाम बताया था। बोले बहुत ईमानदार और मदत करने वाले ऑफीसर हैं। मैं आप से मिलने आ गया सर...! मुझे इस चक्रब्यूह से छुटकारा दिलाईए। मैं बच्चों की कसम खाकर कहता हूँ मैं ने कोई लोन नहीं लिया है सर...! जरा इस कागज को पढ़ लीजिए और अपने हाथों से फार कर फेक दीजिए। जब मैं ने कोई कर्ज लिया ही नहीं तो फिर तगादा कैसा ? रमेश ने उस व्यक्ति के हाथ से चिट्ठी ले ली । गौर से देखकर कहा, लेकिन यह तो असली चिट्ठी है बनारसी जी। यह बैंक का रिकाभरी लेटर है। बैंक किसी से ठगी नहीं करता। आप से ही भूल हो रही है बनारसी , आप ने जरूर कभी लोन लिया होगा। वही सूद के साथ बढ़कर इतना हो गया है।` कनारसी अर गया। बोला, सर मैंने कईबार आप से कहा है कि मैंने कोई कर्ज नहीं लिया है। कर्ज भला कोई भूलता है। रमेश बाबू ने शांत किन्तु गम्भीर स्वर में कहा, 'आप याद कीजिए। देखिए भलाई इसी में हैं कि बैंक का पैसा चुका दीजिए। जहाँ तक हम लोगेां से बन परेगा, आपको सुविधा कर दूँगा।` रिटायर्ड कान्सटेबल बनारसी सिंह उबल परे, 'यह कैसी बात आप करते हैं, भला मैं क्यों पैसे चुकाउँ। मंैने कर्ज लिया ही नहीं तो चुकाना क्यों परेगा। कोई देा चार हजार की बात तो है नहीं जो लेकर भूल जाउँगा। फिर रुक कर बोला, एक बात बता दूँ सर ! कर्जा लिया हुआ कोई कभी नही भूलता। मैं सच कहता हूँ सर ! जीवन में मैंने आजतक कभी भी एकसाथ इतना पैसा देखा ही नहीं । भूलना तो दूर।` रमेश बाबू का धैर्य अब जबाब दे रहा था, गम्भीर शब्दों में किसी से उन्होंने कहा, 'इनका फाईल ले आइये।` बनारसी से मुखातिव होते हुए बोले, 'बनारसी जी मैं अभी आपकेा फाइल दिखाता हँू। बैंक ऐसी गलती कर ही नहीं सकती। यदि आप लोन नहीं लिए होते तो तकादे की चिट्ठी जाती ही नहीं।`` पर बनारसी मानने को तैयार ही नहीं था बोला, 'हाँ दिखलाइये सर ! अभी दूध का दूध और पानी का पानी हो जाय।` अब बनारसी कान्सटेबल का क्रोध धीरे-धीरे चिन्ता में तब्दील होती जा रही थी। उसके चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ साफ दिख रही थी। सोच रहा था, 'मैनेजर साहब भी कह रहे हैं चिट्ठी असली है।` बनारसी रमेशबाबू को हाथ जोड़कर कहने लगा, 'जरा ठीक से चेक कर लीजिएगा सर ! मैं बर्बाद हो जाउँगा। गरीब आदमी हूँ सर...!` रमेशबाबू के टेबल पर फाईल आ चुका था। उन्होंनेे देखा लोन अप्लिकेसन पर बनारसी सिंह के नाम का दस्तखत है। रमेशबाबू बनारसी को एक सादा कागज देते हुए बोले, 'जरा इस पर दस्तखत कीजिए! बनारसी ने काँपते हाथों से दस्तखत किया। रमेश ने छूटते ही कहा बिल्कुल सही। एकदम वही दस्तखत है। फिर खीझ कर बोले, 'देखिए आप लोग बिना मतलब बैंक मे आकर हल्ला मचाते रहते हैं। कर्ज लेने समय समझते नहीं और बाद में जब तकादा जाता है तो जमीन आसमान एक करने लगते हैं। चुपचाप आकर पैसा दे जाइये वर्णा कोई डिप्टी साहब बचाने नहीं आएँगे। सीधा जेल होगा। जहाँ नौकरी की है वहीं आराम कीजिएगा।` बनारसी फफक परा, रोते हुए उसने कहा, 'मेरा विश्वास कीजिए सर ! मैंने कोई लोन नहीं लिया है। किसी तरह पेंसन से खाना पीना जुटता है। दया कीजिए सर।` रमेशबाबू परेशान होते हुए बोले, 'कर्ज नहीं लिय तो फिर ये दस्तखत कहाँ से आ गया। देखिए इसे खुद गौर से देखिए आपका ही दस्तखत है कि नही ?` हाँ सर ! यह दस्तखत तो मेरा ही है। हम झूठ नही बोलेंगे सर ! पर मैंने लोन नहीं लिया सर...! रमेश के कक्ष में अबतक मजमा सा लग गया था। अन्य बैंक कर्मी भी तमाशबीन बन गए थे। कोई भी अपना कामेन्ट देने से नहीं चूक रहा था। एक ने कहा, 'बेकार आप इसे कमड़े में बिठाकर तरजीह दे रहे थे सर ! महीने भर से हम लोगों का माथा खा रहा है।` दूसरे ने कहा, 'पागल है सर! ` तीसरे ने कहा, 'जाओ, जाकर सूद समेत पैसे का इन्तजाम करके आओ।` किसी ने कहा, 'फ्रॅाड है सर ! असली फ्राड है ।` बनारसी रमेशबाबू के टेबल पर सिर गरा कर बिलखने लगा। रमेशबाबू को बनारसी की बातोंे में सच्चाई दिख रही थी। हृदय की गहड़ाइयों से लिकलने वाले सच्चे श्वरों में एक विशेष प्रकार की अनुगंूज और खनक होती है जो सीधे सुनने वाले की आत्मा में प्रवेश कर जाती है। रमेश बाबू की आत्मा ने बानारसी के श्ब्दों में सच की उस अंर्तध्वनि को पहचान लिया। उन्हों ने कमड़े में जमे लोगों से खीझ कर कहा, 'चुप रहिए आप लोग। जो जी में आता है बकते जा रहे हैं। बनारसी झूठ नहीं बोल रहा है। यह सुनकर सब आवाक हो गए। सबका सर चक्कर खा गया । यह क्या कह रहे हैं मैनेजर साहब ? सभी रमेशबाबू को जिज्ञासा की दृष्टि से देखने लगे। रमेश ने आगे कहा, 'बात समझने की कोशिश कीजिए। कोई इन्सान यों ही अपने बच्चेां की कसम नहीं खा सकता। मुझे तो लगता है बनारसी झूठा नहीं है, पर इसके साथ फ्राड अवश्य हुआ है।` रमेश की बात सुनकर कमरे में जमे सभी लोग हतप्रभ हो गए। सबके चेहरे पर प्रश्न का भाव झलक रहा था, 'क्या कह रहे हैं आप सर ? रमेशबाबू ने भाव से कहा, 'अभी पता चल जायगा।फिर उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर बनारसी से कहा, 'बनारसी जी आप सच कह रहे हैं ? आप ने पैसा नहीं लिया है? रमेश की बातेां से बनारसी को ढ़ाढ़स बंधी थी। वह विगलित स्वर से कहा, 'भगवान साक्षी सर ! मैं ने एक पैसा कर्ज नहीं लिया।` रमेशबाबू ने सहानुभूति पूर्वक कहा, 'तो फिर आप के साथ घोखा हुआ है। किसी ने आप के साथ घोखा किया है। बनारसी आस्वस्थ होते हुए बोला वही तो मैं कह रहा हूँ सर ! रमेशबाबू ने बैंक में उपल्ब्ध कर्ज के विभिन्न प्रपत्रों को बारी-बारी से बनारसी के सामने रखा। बोले, 'आप घबराइये नहीं। गौर से इस कागज को देखिए और शान्त भाव से याद किजिए, 'आपने ऐसे किसी कागज पर कभी हस्ताक्षर किया था, या नहीं?` बनारसी के चेहरे पर बेचैनी थी। रमेश ने फिर कहा 'शांत मन से दिमाग पर जोड़ डालिए। याद कीजिए।` एक प्रपत्र को देखकर बनारसी की आंखों में चमक दौर गई। कुछ याद कर बोला, 'एक बार डिप्टी साहब ने ऐसा ही एक कागज पर दशखत के लिए कहा था। पर वह तो पेंशन का कागज था।` रमेश ने कहा, 'देखिए गौर से ऐसा ही कागज था ?`` बनारसी के मन में संदेह उत्पन्न हो रहा। उसने मन को समझाते हुए कहा, 'था तो सर कुछ-कुछ ऐसा ही पर......न.., न: ऐसा नहीं हो सकता सर..! वो ऐसा नहीं कर सकते। उन्हों ने तेा कहा था यह पेंशन का कागज है, साइन करदो, रिटायरमेन्ट के समय सहूलियत होगी। पर आप नाहक शक कर रहे हैं। डिप्टी साहब...., भला वे क्यों ऐसा करने लगे। रमेशबाबू का शक सही लिकला। उन्होंने अपने सिर पर हाथ रख लिया। चिन्तित होकर बोले, शक नही बनारसी ! मुझे तो लगता है तुम्हारे डिप्टी साहब ने ही तुम्हें चूना लगाया है। उन्हों ने धोखा से कर्ज के कागज पर तुमसे दस्तखत करवा लिया।` बनारसी के पांव के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई। हतप्रभ होकर कहने लगा, 'पर उन्होंने ऐसा क्यों किया होगा। किस बात की कमी थी उनको।` सभी कर्मचारियों को अबतक माजरा समझ में आने लगा था। बनारसी के प्रति जो रोश था वह संवेदना में तब्दील हो चुका था। एक कर्मचारी ने कहा, पैसा....बनारसी भाई, पैसा...। दूसरे ने कहा, 'इसीलिए तो हम बैंक वाले पैसे के मामले में अपने आप पर भी विश्वास नहीं करते।` कुछ कर्मचारी आपस में फुस फुसा कर बात कर रहे थे, 'देखो, कल तक उसी डिप्टी साहब के बल पर हम सबों को धमका रहा था बेचारा...। भगवान समझता था उसे, उसी ने धोखा दे दिया। बनारसी कटे वृक्ष की भाँति कुर्सी पर निढ़ाल हो गया। उसके चेहरे पर घोर हताशा के भाव धिर आए थे। उसकी आँखें निश्तेज हो गयी थीं। वह भाव शून्य सा सब की ओर देख रहा था। रमेशबाबू बनारसी की बूढ़ी आँखों में उसकी मनोदशा को पढ़ पा रहे थे। आज बनारसी के भगवान ने ही उसे घोखा दे दिया था। सब लोग स्तब्ध थे। अभी-अभी उनलोगेां के बीच एकहत्या हुई थी । आज फिर एक इन्सान के आस्था का खून हुआ था। अभी-अभी आस्था और विश्वास की अकाल मुत्यु देखी थी उनलोगों ने। आस्था का गला घोंटा गया था किन्तु वहाँ खून का एक बूँद भी नहीं था, थी अश्रु की अजश्र धारा। बनारसी के आंखों से अश्रु की अविरल धारा बह रही थी। बनारसी कुछ देर पूर्व भी वहीं पर चिंता और वेदना से रोया था। किन्तु उस रुदन में कातरता थी। उस अश्रु में लावण्य था। अब भी बनारसी के आंखों से आंसू बह रहे थे। किन्तु इसमें विश्वासघात की वेदना थी और थी आक्रोश की ज्वाला। इन आंसुओं में वह पहले जैसा लावण्य नहीं था। अब उन आँसुओं में था तेजाब का जलन ।

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
कलानाथ मिश्र एम०ए०,एम०बी०ए० । पी-एच०डी० । डिप्लोमा, (कम्प्युटर एप्लिकेशन) कई वर्षों तक पाटलिपुत्र दैनिक समाचार पत्र में कार्य । अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविता,कहानी,समीक्षात्मक निबंध प्रकाशित तथा आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से प्रसारित। विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से सम्बद्ध । सम्प्रति स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग,ए० एन० कॉलेज, पटना,मगध वि०वि० में विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत। संपादक: सहित्य यात्रा, ISSN No. 2349-1906 visiting faculty, deptt. of Business Management(MBA) A.N.College.